मथुरा की संस्कृति यूनिवर्सिटी में पढ़ी गयी नमाज, क्या संविधान इसकी अनुमति देता है ? जानिए सर्वोच्च न्यायालय के सर्वमान्य निर्णयों के माध्यम से।

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कॉलेज और यूनिवर्सिटी शिक्षा अर्जन के केंद्र हैं आध्यात्मिक उन्नयन और धार्मिक उपासना के नहीं। 
इनके लिए निश्चित स्थान मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे नियत किये गये हैं। 
सर्वोच्च न्यायालय ने भी छात्रों के बीच वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा देने की बात कही है। 
विद्यालयों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए प्रार्थना की जाती है। किसी धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए नहीं। 
पत्रकारों के ग्रुप पर संस्कृति यूनिवर्सिटी में पढ़ी गयी नमाज का कडा विरोध हुआ तथा सलाह दी गयी कि विद्यालय प्रशासन को इनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही करनी चाहिए नहीं तो कल से वहाँ माता की चौकी लगेगी,जागरण होगा और सुंदर कांड का पाठ भी होगा व नौ निहालों के दिमाग में अभी से धार्मिक कट्टरता का बीजारोपण हो जायेगा।।
निम्न नजीर प्रस्तुत की गयी जिसमें जस्टिस बनर्जी का विश्लेषण महत्वपूर्ण है। 

2019 में जस्टिस नरीमन और विनीत की बेंच ने केंद्रीय विद्यालय संगठन में धार्मिक प्रार्थनाओं के पाठ के खिलाफ मामला तीन जजों की बेंच को रेफर कर दिया था। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस ने न्यायमूर्ति बनर्जी के समक्ष प्रस्तुत किया कि न्यायमूर्ति नरीमन ने पिछली सुनवाई के दौरान कहा था कि रिट याचिका ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 28 (1) की सही व्याख्या के संबंध में मौलिक महत्व के प्रश्न उठाए हैं।

जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि, "मैं जिस स्कूल में जाती थी, वहां हमें असेंबली में खड़े होकर प्रार्थना करनी पड़ती थी." 
मामले को स्थगित करते हुए उन्होंने यह कहा कि स्कूलों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने के लिए प्रार्थना की जाती है। (जोर दिया गया)
ग्रुप में यह भी कहा गया कि धार्मिक उन्माद कटरपंती और मंदिर मस्जिद नेताओं के लिए छोड़ दो इस आग को कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मत फैलाओ। वहाँ किसी भी धर्म की कोई भी मान्यता के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। सर्व धर्म संभाव की शिक्षा दी जानी चाहिए।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति और देश में धार्मिक सद्भाव और सहिष्णुता बनाए रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाओं के मुद्दे पर कई फैसले जारी किए हैं।

ऐतिहासिक मामले में एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है, और यह कि राज्य किसी विशेष धर्म को बढ़ावा या प्रचार नहीं कर सकता है। इसका मतलब यह है कि सरकारी स्कूलों में प्रार्थना सहित धार्मिक गतिविधियों का प्रचार या संचालन नहीं किया जा सकता है।

न्यायालय ने यह भी माना है कि छात्रों को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार को शैक्षिक संस्थानों में धर्मनिरपेक्षता बनाए रखने के राज्य के कर्तव्य के साथ संतुलित होना चाहिए। एस.पी. मित्तल बनाम भारत संघ (1983) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि छात्रों को स्कूलों में व्यक्तिगत प्रार्थना करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन स्कूल अधिकारियों द्वारा आयोजित या आयोजित की जाने वाली सामूहिक प्रार्थनाओं की अनुमति नहीं है।

एक अन्य मामले में, 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदायों (जैसे मुस्लिम या ईसाई स्कूल) द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को अपने स्वयं के मामलों को प्रशासित करने का अधिकार है, जिसमें धार्मिक प्रार्थना और समारोह आयोजित करने का अधिकार शामिल है, जब तक कि वे ऐसा नहीं करते हैं। दूसरे धर्म के छात्रों के साथ भेदभाव

कुल मिलाकर, सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षण संस्थानों में एक धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु वातावरण बनाए रखने के महत्व पर बल दिया है, साथ ही विद्यार्थियों के अपने धर्म का अविघ्न रूप से अभ्यास करने के अधिकारों का भी सम्मान किया है।
उपरोक्त जबाब श्री एन.के.गोस्वामी जी ने दिया है जो सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता हैं इसका न्यूज़ 24 उत्तर प्रदेश डॉट कॉम की टीम से कोई सरोकार नहीं है। 
संस्कृति यूनिवर्सिटी में पढ़ी गयी नमाज का वीडियो। 

विद्यालयों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए प्रार्थना की जाती है। किसी धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए नहीं।

नरेन्द्र गोस्वामी,अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय

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